कई माह से जारी किसान आंदोलन सरकार पर कृषि कानूनों को वापस लेने का कितना दबाव बना पाएगा, यह वक्त तय करेगा, पर मुजफ्फरनगर में हुई किसान रैली के बाद इसके राजनीतिक असर को लेकर तस्वीर साफ हो गई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम समीकरण बनता है, तो इसका नुकसान कई पार्टियों को उठाना पड़ सकता है। पश्चिमी यूपी में करीब 136 विधानसभा सीट पर जाट मतदाता हैं। इनमें 55 सीट ऐसी है, जहां जाट-मुस्लिम आबादी करीब 40 फीसदी है। ऐसे में 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बनी खाई को पाटने की कोशिश की जाती है तो चुनाव परिणाम पर इसका असर पड़ सकता है। पर इसके लिए मुस्लिम से ज्यादा जाटों को कोशिश करनी होगी।

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मुस्लिम मतदाताओं ने कई सीट पर रालोद को वोट किया था, पर उस वक्त जाट मतदाताओं ने रालोद के मुकाबले भाजपा पर भरोसा जताया था। इसलिए, इस बार भी चुनाव परिणाम काफी हद तक जाट मतदाताओं पर निर्भर करेंगे। वह किस पार्टी का साथ ज्यादा देते हैं।

उनके मुताबिक, किसान आंदोलन और जाट-मुसलिम समीकरण बनता है तो पश्चिमी यूपी में कांग्रेस की चुनौती बढ़ सकती हैं। पार्टी सहारनपुर और मुजफ्फरनगर जिले की सीटों पर जीत दर्ज करती रही है। जाट-मुस्लिम समीकरण के जमीनी शक्ल लेने और पार्टी अकेले चुनाव लड़ने पर मतदाता सपा-रालोद गठबंधन पर ज्यादा भरोसा जताएंगे।

बसपा की चुनौतियां भी बढेगी, पर दलित मतदाताओं के भरोसे मुस्लिम वोटर साथ दे सकते हैं। पर मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद सपा-रालोद गठबंधन होगी। इसका असर उत्तर प्रदेश में सियासी जमीन तलाश रहे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम पर भी पड़ेगा। बिहार की तरह सफलता हासिल करने के लिए ज्यादा मेहनत करनी होगी।

एआईएमआईएम यूपी की सौ सीट पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है। ओवैसी की नजर पश्चिमी यूपी पर है। पर किसान आंदोलन और पंचायतों के बाद समीकरण बदल रहे हैं, ऐसे में उन्हें अपनी पार्टी के लिए ज्यादा जगह नहीं मिल पाएगी। ओवैसी ने 2017 के चुनाव में 38 सीट पर अपनी किस्मत आजमाई थी और उन्हें करीब दो लाख वोट मिले थे। ऐसे में उन्हें हर सीट पर पांच हजार से अधिक वोट मिले थे।

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