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क्या मेरा वजूद, इतना ही है इस जहां में?
क्या लड़ नहीं सकती मैं?
अपने अस्तित्व के लिए?
या फिर पैदा ही हुई इस गुलिस्तां में_
अपने संसार से विदा होने के लिए।
आज आगमन पर मेरे रोया सारा जहां है।
मन की बस यही व्यथा है
ऐ खुदा तू कहां है?
हे ईशवर् तू बस्ता कहां है?

क्या आसमां को भी अफसोस था?
तभी तो मेरे आगमन पर रोया था।
आखिर गुस्ताखी क्या कि मैंने खुदा?
जो दिए मुझे बेटी बना
ना ढोल ना नगाड़े
बस बजे तो ताशे थे।
क्या मुझ में ऐसा खोट है,
जो जमाने ने दिया मेरे
मां बाप को इतना चोट है_
क्या बेटी जनना पाप है?
यह सोचता आज हर बेटी का बाप है।
मन की बस आज यही व्यथा है_
ए खुदा तू कहां है?
हे ईश्वर तू बस्ता कहां है???

कैसी दिवाली, कैसी होली थी _
बस बदले में बातों और थानों की बौछार
और सौगात में मिली आंसुओं की झोली थी।
कभी मिट्टी के भाव में बिकती_
तो रोजाना किसी की हवस का शिकार बनती थी।
कहते हैं की हस्ती मिटती नहीं किसी की_
पर मेरी तो हर रोज एक नई हंसती थी।
मन की बस आज यही व्यथा है,
ए खुदा तू कहां है?
हे ईश्वर तू बस्ता कहां है???

आज बिलख-बिलख कर रोती हूं,
और पूछती हूं, इस जहां से।
आज अंत हुआ दुस्साहस का
ए मूर्ख समाज तु उत्तर बता??
जा पढ़ ले महाभारत और रामायण आज,
और देख क्या मिला कभी नारी को सरताज ??
ये धरती तू कर रहा चीरहरण_
उसकी रक्षा हेतु भी एक माता है।
इस संपूर्ण सृष्टि की भी एक जननी है_
फिर भी तू देख ऐ मनुष्य, तेरी इसके लिए क्या करनी है।
सरहद पर जो भी जाता है,
उसका प्रेम भी भारत हेतु एक माता है।
फिर भी बार_बार, सौ बार क्यों ये कहा जाता है?
कि बेटा ही कुल का यश बढ़ाता है ।।
मन की बस आज यही व्यथा है,
ए खुदा तू कहां है??
हे ईश्वर तू बस्ता कहां है ????

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